Thursday, March 5, 2009

बीकानेर के बारे में विस्‍तार से जानकारी

आज एक साइट देखी जिसमें बीकानेर के बारे में विशद जानकारी दी गई है। इसका लिंक है 


इसमें राहुल तनेगारिया ने बीकानेर रियासतकाल और जिले का विशद वर्णन दिया है। इसके अलावा इस लिंक 



इसके अलावा इसमें राहुल ने राजस्‍थान के लोकनाट्य यानि रम्‍मतों के बारे में भी जानकारी दी है। 

एक सराहनीय प्रयास। 

Sunday, January 18, 2009

साहित्‍य संगिनी की आस

चईजे एक साहित्‍य संगिनी वा होवे कोई रंग री सार
हूं सिरजूं बीने वा सिरजे म्‍हनै
विपरीत शब्‍द भाव व्‍यंजना ने वा विरजे
मीठा बोली वा हुवै प्रियदर्शिनी
म्‍हनै चईजे एक साहित्‍य संगिनी वा होवे कोई रंग री सार

क्‍यों चईजै ?

म्‍हारी जोड़ायत भोळी सूं घणो सणेसो आयो
संस्‍कृत भाषा में सृजियो तो बोली
ओझा पण्‍डो आयो
हिन्‍दी भाषा में सृजियो तो बोली
चारण भाट लखीजो
राजस्‍थानी में सृजियो तो बोली
डाढी डूम कईजो

ई दुखड़े सूं दुखी होय म्‍हारे हिवड़े मांग करी जी
म्‍हनै चईजे एक साहित्‍य संगिनी वा होवे कोई नैना भंजणी


आ कविता भी कविवर वैद्यराज सत्‍यनारायणजी व्‍यास सा सुणाई।


कविता का मर्म यह है कि एक साहित्‍यप्रेमी को तलाश है साहित्‍यसंगिनी की। रंग री सार का अर्थ यह है कि चौपड़ के खेल में जो गोटी रंग वाली होती है उसे पक्‍की गोटी कहा जाता है। यह रंग की सार जल्‍दी से उखड़ती नहीं है। तो ऐसी साहित्‍य संगिनी चाहिए जो साहित्‍य का सृजन भी कर सके और साहित्‍यकार की बात का समर्थन भी कर सके। जब अपनी जोड़ायत यानि पत्‍नी को संदेशा‍ भिजवाया तो पता चला कि किसी भी भाषा में सृजन क्‍यों न कर लिया जाए उसे समझ में नहीं आने वाली। इसी दुख से दुखी होकर साहित्‍यप्रेमी कहता है मुझे चाहिए एक ऐसी संगिनी जिसे आंख की शर्म भी हो।

मैंने पूरा भाव पेश करने का प्रयास किया है। कहीं चूक हुई हो तो विद्वजन मुझे माफ करें और सलाह देने का कष्‍ट करें।